लॉकडाउन: चार दशकों में पहली बार कम हुआ भारत का कार्बन उत्सर्जन
पर्यावरण के लिए लॉकडाउन एक अच्छे रूप में निकल कर सामने आया है। लगातार देश विदेश से पर्यावरण के बेहतर होने की खबरें आ रही है। वहीं एक ये भी ख़बर है की भारत का कार्बन-डाई-ऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन चार दशकों में पहली बार गिरा है।
कार्बन उत्सर्जन का सीधा मतलब हमारे पर्यावरण में कार्बन पैदा करने से है। ये जलवायु परिवर्तन में मुख्य योगदानकर्ता हैं। चूंकि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का आंकलन अक्सर कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा से की जाती है, इसलिए ग्लोबल वार्मिंग या ग्रीनहाउस प्रभाव की चर्चा करते समय उन्हें अक्सर "कार्बन उत्सर्जन" कहा जाता है। औद्योगिक क्रांति के बाद से जीवाश्म ईंधन के जलने में वृद्धि हुई है, जो सीधे तौर पर हमारे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में वृद्धि और इस प्रकार ग्लोबल वार्मिंग के तेजी से बढ़ने से संबंधित है।
पर्यावरण समर्पित एक वेबसाइट कार्बन ब्रीफ के विश्लेषण के अनुसार, नवीकरणीय यानी रिन्यूएबल ऊर्जा से बिजली के उपयोग ने जीवाश्म ईंधन यानी फॉसिल फ्यूल्स की मांग को कमजोर कर दिया था और यह मार्च में अचानक आए देशव्यापी लॉकडाउन से देश की 37 साल की उत्सर्जन वृद्धि पर रोक लगाकर इसको काफी कम कर दिया है। अध्ययन में पाया गया है कि भारतीय कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन मार्च में 15 फीसदी गिर गया, और अप्रैल में इसके 30 फीसदी तक गिर गया है। हालांकि ये 2019 की शुरुआत से धीमा होना शुरू हो गया था। वहीं अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) द्वारा अप्रैल के अंत में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, वर्ष की पहली तिमाही में कोयले का दुनिया में उपयोग 8 फीसदी नीचे रहा। एक प्रमुख कारण है कि कोयले ने बिजली की मांग में गिरावट का खामियाजा उठाया है। इसे दिन-प्रतिदिन के आधार पर चलाने के लिए अधिक लागत आती है। एक बार जब आप एक सौर पैनल या विंड टरबाइन लगा लेते हैं, तो परिचालन लागत बहुत कम होती है और इसलिए, बिजली ग्रिड पर प्राथमिकता प्राप्त करते हैं। थर्मल पावर स्टेशन कोयला, गैस या तेल द्वारा चलते है जिसके लिए देश को बिजली पैदा करने के लिए ईंधन खरीदने की आवश्यकता होती है। वहीं विश्लेषकों ने चेतावनी दी है कि जीवाश्म ईंधन के उपयोग में गिरावट नहीं हो सकती है। उनके तर्क के अनुसार जब महामारी फैलती है तो एक जोखिम होता है कि उत्सर्जन फिर से बढ़ जाएगा क्योंकि देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को फिर से चालु करने का प्रयास करते हैं। ऐसा देखने को मिला अमेरिका में, जिसने अभी से ही पर्यावरण नियमों को ताक पर रखना शुरू कर दिया है और इस बात से डर बढ़ गया है कि अन्य देश भी ऐसे कदम उठाएंगे। बात अगर देश की करें तो भारत में नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में आर्थिक बढ़त है, जो कोयले की तुलना में बहुत सस्ती बिजली करता है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि नई सौर क्षमता की लागत 2.55 रुपये प्रति किलोवाट घंटे तक हो सकती है, जबकि कोयले से बनने वाली बिजली की औसत लागत 3.38 रुपये प्रति घंटे है। 2019 में लॉन्च किए गए देश के राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम के अंतर्गत नवीकरण में निवेश को बढ़ावा दिया गया है। पर्यावरणविदों को उम्मीद है कि स्वच्छ हवा और साफ आसमान भारतीयों को पसंद आया है और लॉकडाउन के बाद से सरकार बिजली क्षेत्र में सफाई और हवा की गुणवत्ता में सुधार के लिए काम करेगी।
पर्यावरण समर्पित एक वेबसाइट कार्बन ब्रीफ के विश्लेषण के अनुसार, नवीकरणीय यानी रिन्यूएबल ऊर्जा से बिजली के उपयोग ने जीवाश्म ईंधन यानी फॉसिल फ्यूल्स की मांग को कमजोर कर दिया था और यह मार्च में अचानक आए देशव्यापी लॉकडाउन से देश की 37 साल की उत्सर्जन वृद्धि पर रोक लगाकर इसको काफी कम कर दिया है। अध्ययन में पाया गया है कि भारतीय कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन मार्च में 15 फीसदी गिर गया, और अप्रैल में इसके 30 फीसदी तक गिर गया है। हालांकि ये 2019 की शुरुआत से धीमा होना शुरू हो गया था। वहीं अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) द्वारा अप्रैल के अंत में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, वर्ष की पहली तिमाही में कोयले का दुनिया में उपयोग 8 फीसदी नीचे रहा। एक प्रमुख कारण है कि कोयले ने बिजली की मांग में गिरावट का खामियाजा उठाया है। इसे दिन-प्रतिदिन के आधार पर चलाने के लिए अधिक लागत आती है। एक बार जब आप एक सौर पैनल या विंड टरबाइन लगा लेते हैं, तो परिचालन लागत बहुत कम होती है और इसलिए, बिजली ग्रिड पर प्राथमिकता प्राप्त करते हैं। थर्मल पावर स्टेशन कोयला, गैस या तेल द्वारा चलते है जिसके लिए देश को बिजली पैदा करने के लिए ईंधन खरीदने की आवश्यकता होती है। वहीं विश्लेषकों ने चेतावनी दी है कि जीवाश्म ईंधन के उपयोग में गिरावट नहीं हो सकती है। उनके तर्क के अनुसार जब महामारी फैलती है तो एक जोखिम होता है कि उत्सर्जन फिर से बढ़ जाएगा क्योंकि देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को फिर से चालु करने का प्रयास करते हैं। ऐसा देखने को मिला अमेरिका में, जिसने अभी से ही पर्यावरण नियमों को ताक पर रखना शुरू कर दिया है और इस बात से डर बढ़ गया है कि अन्य देश भी ऐसे कदम उठाएंगे। बात अगर देश की करें तो भारत में नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में आर्थिक बढ़त है, जो कोयले की तुलना में बहुत सस्ती बिजली करता है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि नई सौर क्षमता की लागत 2.55 रुपये प्रति किलोवाट घंटे तक हो सकती है, जबकि कोयले से बनने वाली बिजली की औसत लागत 3.38 रुपये प्रति घंटे है। 2019 में लॉन्च किए गए देश के राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम के अंतर्गत नवीकरण में निवेश को बढ़ावा दिया गया है। पर्यावरणविदों को उम्मीद है कि स्वच्छ हवा और साफ आसमान भारतीयों को पसंद आया है और लॉकडाउन के बाद से सरकार बिजली क्षेत्र में सफाई और हवा की गुणवत्ता में सुधार के लिए काम करेगी।
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