कोरोना और नफ़रत: खाड़ी देशों को हम पर उंगली उठाने का मौका किसने दिया ?

by Darain Shahidi 3 years ago Views 3648

 Hate in Corona's era, who is responsible?
कोरोना के दौर में नफ़रत फैल रही है।

बड़ी बीमारी कोरोना है या नफ़रत?


कोरोना का तो इलाज निकल आएगा लेकिन क्या नफ़रत का कोई इलाज है?

ये एक राजकुमारी की कहानी है। ये राजकुमारी हम सब भारत के लोगों को प्यार का पैग़ाम भेज रही है। यूएई में एक राजकुमारी है जिसका नाम हेंद अल कस्सिमि है।ये लगातार ट्वीट कर रही हैं जिसमें वो हमें गांधी के संदेशों की याद दिला रही हैं। राजकुमारी कस्सिमि हमें याद दिला रही हैं कि जिस भारत को वो जानती हैं उस भारत में नफ़रत की कोई जगह नहीं है।

वो लिखती हैं कि “मैंने प्यार से रहने का फैसला किया है। नफ़रत सहन करना एक बहुत बड़ा बोझ है। हम महसूस करते हैं कि नफ़रत केवल उन लोगों को कैसे आहत करती है जो इसे महसूस करते हैं। हमें अपनी पुरानी कुरीतियों को दूर करना होगा और स्वीकार करना होगा कि मतभेद हमेशा मौजूद रहेंगे। हम ईश्वर नहीं हैं जो फैसला करें कि कौन ज़िन्दा रहे, जीते या बस रहे।”

आख़िर राजकुमारी कस्सिमि को हम भारतीयों को लेक्चर देने का मौक़ा किसने दिया। खाड़ी देशों में ये ख़बर फैली हुई है कि भारत में मुसलमानों के साथ ज़्यादती हो रही है। सोशल मीडिया पर भी हिंदू-मुस्लिम हो रहा है। टीवी पर ज़हर उगला जा रहा है। जब से दिल्ली में जमात के लोग कोरोना पॉज़िटिव पाए गए तब से सोशल मीडिया पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ फ़ेक न्यूज़ बाढ़ आ गई। यूएई में क़रीब 34 लाख भारतीये रहते हैं। इनमें से कई ऐसे हैं जिन्होंने सोशल मीडिया पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ फ़ेक न्यूज़ शेयर किए। राजकुमारी इससे नाराज़ हो गईं और एक के बाद एक ट्वीट करना शुरू किया। उनके साथ कई पत्रकार जुड़े और फिर सरकार में शामिल लोग भी।

बात यहाँ तक पहुँच गई कि अगर कोई सोशल मीडिया पर सामाजिक एकजुटता को तोड़ने की कोशिश करेगा तो उसपर कड़ी कार्रवाई होगी और उसे अपने देश भेज दिया जाएगा। बढ़ते-बढ़ते ये इतना बढ़ गया कि 57 सदस्यों वाली ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन ने इसे “Growing Islamophobia" In India यानि “भारत में बढ़ते इस्लामिकफोबिया” कह दिया।

इसपर प्रधानमंत्री को ख़ुद ट्वीट करना पड़ा कि कोरोना बीमारी नस्ल, धर्म, रंग, जात-पात भाषा और सीमा नहीं देखती।इस बीमारी से निपटने के लिए हमारी प्रतिक्रिया और आचरण एकता और भाईचारे वाला होना चाहिए। हम सब इसमें एक हैं। इसके बाद खाड़ी देशों में भारतीये दूतावासों को इसमें दख़ल देना पड़ा और उन्होंने स्टेट्मेंट दिया कि "भेदभाव हमारे नैतिक कपड़े और कानून के शासन के खिलाफ है, यूएई में रहने वाले भारतीय नागरिकों को ये हमेशा याद रखना चाहिए," क्या आपको मालूम है कि हर साल यूएई से कितना पैसा भारत आता है। भारत की अर्थव्यवस्था को इससे कितना फ़ायदा होता है।

अमरीका के बाद सबसे अधिक भारतीये यूएई में रहते हैं। 2018 में भारत से सबसे अधिक लो स्किल्ड कामगार अरब देशों में जाकर बसे। इनमें से सबसे अधिक उत्तर प्रदेश और बिहार से हैं। ऐसा माना जाता है कि केरल से सबसे अधिक संख्या में लोग अरब देशों में बेस्ते हैं लेकिन लो स्किल्ड रोज़गार पाने में सबसे बड़ी संख्या यूपी और बिहार के लोगों की है।

अब देखिए कि ये लोग वहाँ कमाया हुआ कितना पैसा भारत भेजते हैं। दुनियाभर में जो रेमिटेंस इन्फ़्लो है वो सबसे अधिक भारत में हैं। 78 मिलीयन डॉलर की ये रक़म 2018 में भेजी गई। जो चीन से अधिक है। और ये सारा पैसा जो आता है उसका लगभग 75 फ़ीसदी से ज़्यादा अरब देशों से आता है वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट बताती है कि साल 2018 में इन भारतीयों ने 76.6 बिलियन डॉलर भारत भेजकर देश की अर्थव्यवस्था मजबूत की थी। ये आकड़ा पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा था। इस मामले में भारत के बाद नंबर आता है चीन का और फिर मेक्सिको का।  

इसके अलावा आरबीआई की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि पैसा जोकि भारतीय भेजते हैं अपने परिवारों को, वो सबसे ज्यादा 26.9 फीसदी आता है  यूनाइटेड अरब एमिरात से, इसके बाद अमरीका से 22.9 फीसदी, सऊदी अरब से 11.6 फीसदी, क़तर से 6.5, कुवैत से 5.5 फीसदी और ओमान से 3 फीसदी रक़म भारत आती है। यानि कुल पैसे का 76.4 फीसदी केवल 6 मुल्कों से आता है। अगर अमेरिका को इससे निकाल दें तो भारत को बाहर से आने वाला आधा से ज़्यादा पैसा यानि 53.4 फीसदी खाड़ी देशों से आता है।

जब पूरी दुनिया में कोरोना वायरस से लड़ने के लिए लोग एकजुट हो चुके हैं। भारत में हिंदू-मुस्लिम कर दिया गया। क्या ये ज़रूरी है कि हर बात में हिंदू-मुस्लिम कर दिया जाए। संकट के समय एक सभ्य समाज और भी अधिक एकजुट हो जाता है। उम्मीद की जाती है कि जात धर्म भूलकर सब एक सूत्र में बंध जाएँगे। क्योंकि कोरोना का संकट पूरी मानवता का संकट है। लेकिन इस संकट के दौर में भी कुछ लोग नफ़रत फैला रहे हैं। इस वजह से भारत की बदनामी हो रही है। बीमारी से ज़्यादा तेज़ी से नफ़रत फैल रही है। अब आपको सिंगापुर की कहानी सुनते हैं। सिंगापुर में सोमवार को क़रीब 1400 नए केस आ गए इनमें से ज़्यादातर भारत और बांग्लादेश से गए प्रवासी कामगार हैं।

गार्डियन अख़बार के मुताबिक़ सिंगापुर में जितने केस आए हैं उनमें से 60 फ़ीसदी कम तन्खाह वाले कर्मी हैं। सिंगापुर में क़रीब दो लाख मज़दूर भारत और बांग्लादेश और दूसरे दक्षिण एशियाइ देशों से हैं और ये सब Dormataries में रहते हैं। एक एक कमरे में 20-20 लोग। इनके लिए सोशल डिस्टन्सिंग नामुमकिन है। लेकिन सिंगापुर के अख़बार ने या टीवी ने भारतीय मज़दूरों को टार्गेट नहीं किया। ना ही इनके ख़िलाफ़ कोई कैम्पेन चला। प्रधानमंत्री ली साइन लूँग ने आश्वासन दिया कि सबका बराबर ध्यान रखा जाएगा। पूरा इलाज करवाया जाएगा।

दक्षिण एशिया के मज़दूरों को सिंगापुर में सूपर स्प्रेडर की संज्ञा दी गई। कुछ कुछ वैसा ही जैसे भारत में जमातियों के बारे में कहा गया। लेकिन भारत में टीवी पर और अख़बारों में जो नफ़रत फैलाई गई वो आप जानते ही हैं। सिंगापुर में भारतीय मज़दूरों के ख़िलाफ़ नफ़रत नहीं फैलाई गई। दुनिया के किसी देश में संकट की इस घड़ी में किसी एक समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत नहीं फैलाई गई। लेकिन हम नफ़रत फैलाने में ज़रा भी देर नहीं करते। फ़ौरन टीवी और अख़बारों की सुर्खीयों में छा जाते हैं।

शायद नफ़रत का व्यापार मुनाफ़ा देता है। टीआरपी देता है। इसलिए शुरू में कहा कि बीमारी का इलाज निकल आएगा लेकिन क्या नफ़रत का इलाज निकल पाएगा। टीआरपी तो बढ़ जाएगी लेकिन नफ़रत की इस बीमारी से देश का जो नुक़सान होगा उसकी भरपाई कौन करेगा?

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