ना शहरों में काम बचा ना गांवों में ज़मीन, कहां जाएं भूमिहीन दलित
कोरोनावायरस की महामारी से पूरा देश जूझ रहा है लेकिन उन लोगों पर इसकी सबसे तगड़ी मार पड़ी है जो सदियों से हाशिए पर पड़े हुए हैं. गांव में जिनके पास खेती के लिए ज़मीन नहीं है, उनमें से बड़ी तादाद में लोग शहरों में मज़दूरी के लिए आ गए थे. अब इनके सामने सबसे बड़ा संकट खड़ा हो गया है क्योंकि ये शहरों में भी अपनी रोज़ी रोटी गंवा चुके हैं.
भारतीय समाज जाति व्यवस्था के खांचों में बंटा हुआ है जिसमें दलित समुदाय सामाजिक और आर्थिक रूप से काफी कमज़ोर है. साल 2015-16 की कृषि सेंसस की रिपोर्ट बताती है कि देश में सिर्फ 9 फ़ीसदी दलितों के ही पास खेतीहर ज़मीन का मालिकाना हक है. 71 फ़ीसदी दलित उन ज़मीनों पर काम करते हैं जिनके मालिक वे खुद नहीं है.
गांवों में तकरीबन 58 फ़ीसदी दलित परिवारों के पास कोई ज़मीन नहीं है. हरियाणा, पंजाब और बिहार में हालात सबसे ज़्यादा ख़राब है जहां 85 फ़ीसदी दलित भूमिहीन हैं और पूरी तरीके से गांव के बड़े किसानों पर निर्भर हैं। तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और केरल जैसे राज्यों में 60 फ़ीसदी दलित भूमिहीन है और दूसरों के खेतों में दिहाड़ी मजदूरी करने को मजबूर हैं. इन राज्यों के कई जिले ऐसे हैं जहां 90 फ़ीसदी से भी ज्यादा दलित भूमिहीन है और बंधुआ मजदूर की तरह जिंदगी जीने को मजबूर हैं. इन्हीं भूमिहीन मजदूरों की एक बड़ी आबादी शहरों में आकर दिहाड़ी पर काम करती है. घर में सहायक, माली, सुरक्षा गार्ड, बेलदार मिस्त्री वग़ैरह का काम करते हैं और वापस गांव में जाकर दूसरों के खेतों में काम करते हैं. ज़ाहिर है लॉकडाउन इन भूमिहीन दलितों के लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं है क्योंकि अब इनके लिए ना शहरों में काम है और ना ही गांव में.
गांवों में तकरीबन 58 फ़ीसदी दलित परिवारों के पास कोई ज़मीन नहीं है. हरियाणा, पंजाब और बिहार में हालात सबसे ज़्यादा ख़राब है जहां 85 फ़ीसदी दलित भूमिहीन हैं और पूरी तरीके से गांव के बड़े किसानों पर निर्भर हैं। तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और केरल जैसे राज्यों में 60 फ़ीसदी दलित भूमिहीन है और दूसरों के खेतों में दिहाड़ी मजदूरी करने को मजबूर हैं. इन राज्यों के कई जिले ऐसे हैं जहां 90 फ़ीसदी से भी ज्यादा दलित भूमिहीन है और बंधुआ मजदूर की तरह जिंदगी जीने को मजबूर हैं. इन्हीं भूमिहीन मजदूरों की एक बड़ी आबादी शहरों में आकर दिहाड़ी पर काम करती है. घर में सहायक, माली, सुरक्षा गार्ड, बेलदार मिस्त्री वग़ैरह का काम करते हैं और वापस गांव में जाकर दूसरों के खेतों में काम करते हैं. ज़ाहिर है लॉकडाउन इन भूमिहीन दलितों के लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं है क्योंकि अब इनके लिए ना शहरों में काम है और ना ही गांव में.
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