रोज़मर्रा के सामान ख़रीदने के लिए जेब में पैसे नहीं, 50 साल में पहली बार गिरावट दर्ज हुई
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी एनएसओ के आंकड़े संकट में फंसी अर्थव्यवस्था की मंदी की कहानी बयां कर रहे हैं. एनएसओ के मुताबिक बीते पांच दशक में पहली बार उपभोक्ताओं के ख़र्च में बड़ी गिरावट दर्ज हुई है. इसका सीधा मतलब है कि आम आदमी की जेब में रुपए नहीं हैं और देश में ग़रीबी बढ़ रही है.
पिछले चार दशक में पहली बार रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर होने वाले ख़र्च में गिरावट आई है. एनएसओ के नए आंकड़ों के मुताबिक 2011-12 के मुक़ाबले 2017-18 में प्रति घर उपभोक्ता ख़र्च में 3.7 फ़ीसदी की गिरावट आई है. 2011-12 में यह ख़र्च 1,501 रुपए था जो घटकर 1,446 रुपए रह गया है.
ग्रामीण इलाक़ों में रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर होने वाला प्रति माह का ख़र्च 2009-10 में 1,054 रुपए था जो 2011-12 में बढ़कर 1,217 हो गया लेकिन 2017-18 में इस ख़र्च में 8.8 की गिरावट आई जो घटकर 1,110 रह गया. वहीं शहरी इलाक़ों में रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर होने वाला प्रति माह का ख़र्च 2009-10 में 1,984 रुपए था जो 2011-12 में बढ़कर 2,212 हो गया लेकिन 2017-18 में इसमें 2 फ़ीसदी की मामूली बढ़ोतरी हुई और यह ख़र्च बढ़कर 2,256 हो गया. गो न्यूज़ ने पिछले महीने सांख्यिकी और योजना मंत्रालय के आंकड़ों के आधार पर रिपोर्ट किया था कि लोग खाने पर 3.3 फ़ीसदी कम और दवाइयों पर ज़्यादा ख़र्च कर रहे हैं. ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में प्रति माह होने वाले ख़र्च का औसत देखा जाए तो 2009-10 में यह 1,329 रुपए था जो 2011-12 में बढ़कर 1,501 रुपए हो गया लेकिन 2017-18 में इसमें 3.7 फ़ीसदी गिरावट दर्ज हुई और यह ख़र्च घटकर 1,446 रुपए रह गया. एनएसओ के इस आंकड़े को 2019 के आमचुनाव के दौरान जून में जारी किया जाना था लेकिन आंकड़े मोदी सरकार के मन मुताबिक नहीं होने पर इसे दबा दिया गया था. वीडियो देखिये विशेषज्ञों के मुताबिक पांच दशकों में ऐसा पहली बार हुआ है जब वास्तविक खपत के ख़र्च में गिरावट आई है. इससे पहले साल 1972-73 में वैश्विक तेल संकट और 1960 के दशक में खाद्यान्न संकट की वजह से खपत में गिरावट दर्ज की गई थी. इसका सीधा मतलब है कि देश की बड़ी आबादी ग़रीबी के दलदल में धंसती जा रही है.
ग्रामीण इलाक़ों में रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर होने वाला प्रति माह का ख़र्च 2009-10 में 1,054 रुपए था जो 2011-12 में बढ़कर 1,217 हो गया लेकिन 2017-18 में इस ख़र्च में 8.8 की गिरावट आई जो घटकर 1,110 रह गया. वहीं शहरी इलाक़ों में रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर होने वाला प्रति माह का ख़र्च 2009-10 में 1,984 रुपए था जो 2011-12 में बढ़कर 2,212 हो गया लेकिन 2017-18 में इसमें 2 फ़ीसदी की मामूली बढ़ोतरी हुई और यह ख़र्च बढ़कर 2,256 हो गया. गो न्यूज़ ने पिछले महीने सांख्यिकी और योजना मंत्रालय के आंकड़ों के आधार पर रिपोर्ट किया था कि लोग खाने पर 3.3 फ़ीसदी कम और दवाइयों पर ज़्यादा ख़र्च कर रहे हैं. ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में प्रति माह होने वाले ख़र्च का औसत देखा जाए तो 2009-10 में यह 1,329 रुपए था जो 2011-12 में बढ़कर 1,501 रुपए हो गया लेकिन 2017-18 में इसमें 3.7 फ़ीसदी गिरावट दर्ज हुई और यह ख़र्च घटकर 1,446 रुपए रह गया. एनएसओ के इस आंकड़े को 2019 के आमचुनाव के दौरान जून में जारी किया जाना था लेकिन आंकड़े मोदी सरकार के मन मुताबिक नहीं होने पर इसे दबा दिया गया था. वीडियो देखिये विशेषज्ञों के मुताबिक पांच दशकों में ऐसा पहली बार हुआ है जब वास्तविक खपत के ख़र्च में गिरावट आई है. इससे पहले साल 1972-73 में वैश्विक तेल संकट और 1960 के दशक में खाद्यान्न संकट की वजह से खपत में गिरावट दर्ज की गई थी. इसका सीधा मतलब है कि देश की बड़ी आबादी ग़रीबी के दलदल में धंसती जा रही है.
Latest Videos