भारत में कम होते जंगल कागज़ों में बरकरार, पर्यावरण को बड़ा ख़तरा
22 मई का दिन अंतर्राष्ट्रीय जैविक विविधता दिवस के रूप में मनाया जाता है। हमारे जीवन में जैविक विविधता के महत्व को ध्यान में रखते हुए इसे मनाते है। जैविक विविधता पेड़-पौधों, जानवरों और सूक्ष्मजीवों की विविधता के संदर्भ में अक्सर समझा जाता है। इसके लिए वनों का होना बहुत महत्वपूर्ण है। ये हमारे इकोलॉजिकल तंत्र की विविधता जिनमें झील, जंगल, रेगिस्तान, कृषि परिदृश्य इत्यादि है और उनके सदस्यों मनुष्यों, पौधों और जानवरों के बीच एक संतुलन बनाए रखता है।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा जारी किये गए ग्लोबल फॉरेस्ट रिसोर्सेस एसेसमेंट 2020 (FRA 2020) के अनुसार 2015-2020 में वन हानि की दर घटकर 10 मिलियन हेक्टेयर रह गई हैं, जबकि ये दर 2010-2015 में 12 मिलियन हेक्टेयर थी। इस रिपोर्ट के अनुसार 1990 के बाद से दुनियाभर में 178 मिलियन हेक्टेयर वन नष्ट हो चुके हैं।
हालांकि, कुछ देशों ने वनों को हटाने के साथ साथ इनकी भरपाई के लिए दूसरी जगहों में वन विस्तार किया हैं, जिससे वन हानि की दर में कमी के साथ भरपाई भी हुई हैं। वन हानि की दर 1990-2000 के दशक में 7.8 मिलियन हेक्टेयर प्रति वर्ष से घटकर 2000–2010 में 5.2 मिलियन हेक्टेयर प्रति वर्ष और 2010-20 में 4.7 मिलियन हेक्टेयर प्रति वर्ष हो गई हैं। दुनियाभर के सिर्फ पांच देशों में वनों का बड़ा हिस्सा हैं जो 54 फीसदी से भी ज्यादा हैं। इसमें रूस फेडरेशन 20 फीसदी, ब्राज़ील 12 फीसदी, कनाडा 9 फीसदी, अमेरिका 8 फीसदी और चीन 5 फीसदी के साथ हैं। वहीं बात अगर भारत की करें तो सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देश का 21.67 फीसदी क्षेत्र फल वन का हैं। इसमें 7,67,419 वर्ग किलोमीटर हिस्सा आता हैं, जो पिछले कुछ सालों में बढ़ा हैं। लेकिन ज़मीनी हालात कुछ और ही बताते है। सरकारी रिकॉर्ड में वन क्षेत्र के रूप में दर्ज 7,67,419 वर्ग किलोमीटर भूमि में से 2,26,542 वर्ग किलोमीटर में कोई वन नहीं है। 30 दिसंबर 2019 को जारी फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) की रिपोर्ट में ऐसा कहा गया है। ऐसा होने की सबसे बड़ी वजह ये है की जब वन विभाग वन मंजूरी के लिए पत्र जारी करता है, तो इन पत्रों में एक मानक खंड डाला जाता है कि जंगल के साफ होने के बाद भी "विकृत वन भूमि की कानूनी स्थिति अपरिवर्तित रहेगी"। दूसरी वजह है की कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जो पारिस्थितिक महत्व के हो सकते हैं जैसे रेगिस्तान, उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्र जहा पेड़ नहीं उगते हैं, दलदली भूमि और घास के मैदानों में वन नहीं हो सकते हैं, लेकिन ये भी इसी दायरे में आ जाते है और कागज़ों में वन क्षेत्र बढ़ जाता है। वहीं 2019 दिसंबर में आई फारेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट पर संयुक्त राष्ट्र के एक तकनीकी आकलन "यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज" (UNFCCC) द्वारा भारत के वन आवरण पर प्रस्तुत देश की वनों की परिभाषा के बारे में चिंता जताई थी। संयुक्त राष्ट्र ने सिफारिश की थी कि भारत जंगलों के कार्बन क्षेत्रों के सटीक आकलन के लिए बागों और बाँस और ताड़ की खेती के तहत क्षेत्रों को दुबारा जांचा जाए। बढ़ा चढ़ा कर पेश किये गए वनों की 5-12% तक की सीमा गिर सकती है। इसपर भारत की निंदा भी हुई थी। भारत में बड़े पैमाने पर वनों को माइनिंग, कंस्ट्रक्शन, निर्माण, टूरिज्म इत्यादि के नाम पर दे दिया जाता है और उसकी भरपाई में किये गए वृक्षारोपण या वनीकरण के लिए कोई सख़्त कानून नहीं है जो बाद में लगाए गए जाली जंगलों का संरक्षण करें। ये पर्यावरण के लिए एक बड़ी चिंता का विषय हैं की पिछले कुछ दशकों में वनों को हटाकर अन्य इस्तेमाल में ज़मीन लिए जाने वाली गतिविधियां बढ़ गई हैं। इससे पर्यावरण के लिए खतरा बढ़ा हैं। भारत में दिबांग घाटी इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं, जिससे बड़े पैमाने पर मानव जीवन और वहां बसी प्रजातियों को ख़तरा है।
हालांकि, कुछ देशों ने वनों को हटाने के साथ साथ इनकी भरपाई के लिए दूसरी जगहों में वन विस्तार किया हैं, जिससे वन हानि की दर में कमी के साथ भरपाई भी हुई हैं। वन हानि की दर 1990-2000 के दशक में 7.8 मिलियन हेक्टेयर प्रति वर्ष से घटकर 2000–2010 में 5.2 मिलियन हेक्टेयर प्रति वर्ष और 2010-20 में 4.7 मिलियन हेक्टेयर प्रति वर्ष हो गई हैं। दुनियाभर के सिर्फ पांच देशों में वनों का बड़ा हिस्सा हैं जो 54 फीसदी से भी ज्यादा हैं। इसमें रूस फेडरेशन 20 फीसदी, ब्राज़ील 12 फीसदी, कनाडा 9 फीसदी, अमेरिका 8 फीसदी और चीन 5 फीसदी के साथ हैं। वहीं बात अगर भारत की करें तो सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देश का 21.67 फीसदी क्षेत्र फल वन का हैं। इसमें 7,67,419 वर्ग किलोमीटर हिस्सा आता हैं, जो पिछले कुछ सालों में बढ़ा हैं। लेकिन ज़मीनी हालात कुछ और ही बताते है। सरकारी रिकॉर्ड में वन क्षेत्र के रूप में दर्ज 7,67,419 वर्ग किलोमीटर भूमि में से 2,26,542 वर्ग किलोमीटर में कोई वन नहीं है। 30 दिसंबर 2019 को जारी फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) की रिपोर्ट में ऐसा कहा गया है। ऐसा होने की सबसे बड़ी वजह ये है की जब वन विभाग वन मंजूरी के लिए पत्र जारी करता है, तो इन पत्रों में एक मानक खंड डाला जाता है कि जंगल के साफ होने के बाद भी "विकृत वन भूमि की कानूनी स्थिति अपरिवर्तित रहेगी"। दूसरी वजह है की कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जो पारिस्थितिक महत्व के हो सकते हैं जैसे रेगिस्तान, उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्र जहा पेड़ नहीं उगते हैं, दलदली भूमि और घास के मैदानों में वन नहीं हो सकते हैं, लेकिन ये भी इसी दायरे में आ जाते है और कागज़ों में वन क्षेत्र बढ़ जाता है। वहीं 2019 दिसंबर में आई फारेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट पर संयुक्त राष्ट्र के एक तकनीकी आकलन "यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज" (UNFCCC) द्वारा भारत के वन आवरण पर प्रस्तुत देश की वनों की परिभाषा के बारे में चिंता जताई थी। संयुक्त राष्ट्र ने सिफारिश की थी कि भारत जंगलों के कार्बन क्षेत्रों के सटीक आकलन के लिए बागों और बाँस और ताड़ की खेती के तहत क्षेत्रों को दुबारा जांचा जाए। बढ़ा चढ़ा कर पेश किये गए वनों की 5-12% तक की सीमा गिर सकती है। इसपर भारत की निंदा भी हुई थी। भारत में बड़े पैमाने पर वनों को माइनिंग, कंस्ट्रक्शन, निर्माण, टूरिज्म इत्यादि के नाम पर दे दिया जाता है और उसकी भरपाई में किये गए वृक्षारोपण या वनीकरण के लिए कोई सख़्त कानून नहीं है जो बाद में लगाए गए जाली जंगलों का संरक्षण करें। ये पर्यावरण के लिए एक बड़ी चिंता का विषय हैं की पिछले कुछ दशकों में वनों को हटाकर अन्य इस्तेमाल में ज़मीन लिए जाने वाली गतिविधियां बढ़ गई हैं। इससे पर्यावरण के लिए खतरा बढ़ा हैं। भारत में दिबांग घाटी इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं, जिससे बड़े पैमाने पर मानव जीवन और वहां बसी प्रजातियों को ख़तरा है।
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