क्षत्रिय और वैश्य से ज़्यादा ओबीसी छुआछूत प्रथा की चपेट में: सर्वे
सदियों से चली आ रही जातिवाद की प्रथा को आज़ाद भारत में ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया गया था लेकिन 73 साल के बाद भी जातिवाद की जड़ें देश में बेहद गहरी हैं. जेएनयू और यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेरीलैंड के नए अध्ययन में तकरीबन 27 फीसदी परिवारों ने माना है कि जातिगत व्यवस्था में उनका यक़ीन है और वे छुआछूत का पालन करते हैं.
इस अध्ययन में देश के 42 हज़ार 152 परिवारों को शामिल किया गया था. इसमें लोगों से पूछा गया कि क्या वो छुआछूत में विश्वास करते हैं और अगर जवाब ना में था तो अगला सवाल पूछा गया कि अगर कोई दलित उनकी रसोई में आ जाये और बर्तन छू ले तो क्या उनको दिक्कत होगी ?
सर्वे के मुताबिक गांव में शहरों के मुकाबले ज्यादा छुआछूत का पालन होता है. शहरों में 20 फीसदी परिवारों ने माना कि वे छुआछूत में विश्वास रखते हैं जबकि गांव में 30 फीसदी ने इसके पालन की बात कही. यह सर्वे इस मायने में महत्वपूर्ण है कि पिछड़ा और दलित वर्ग के लोगों ने भी माना है कि वे छुआछूत की प्रथा का पालन कर रहे हैं. पिछड़ा वर्ग में यह समस्या वैश्य समुदाय से ज़्यादा मालूम पड़ती है. सर्वे में दावा किया गया है कि छुआछूत की प्रथा ब्राह्मण समुदाय में सबसे ज़्यादा 52 फीसदी है. वहीं क्षत्रिय और वैश्य समुदाय में 24 फीसदी, ओबीसी में 33 फीसदी, अनुसूचित जाति में 15 फीसदी, अनुसूचित जनजाति में 22 फीसदी और अन्य में 13 फीसदी लोग छुआछूत की प्रथा को मानते हैं और इसका पालन करते हैं. इन आंकड़ों से पता चलता है कि क्षत्रिय और वैश्य समाज से ज्यादा अन्य पिछड़ा वर्ग छुआछूत की प्रथा का पालन कर रहा है. वंचित और दमित माने जाने वाले दलित भी जाति के आधार पर भेदभाव कर रहे हैं. छुआछूत की समस्या किस धर्म में सबसे ज़्यादा है, यह सर्वे इस पहलू पर भी रोशनी डालता है. इसके मुताबिक सबसे ज़्यादा 35 फीसदी जैन समुदाय के लोगों ने छुआछूत की बात मानी. दूसरे नंबर पर हिंदू रहे जिनके 30 फीसदी परिवारों ने माना कि इस प्रथा का पालन करते हैं. वहीं सिखों में यह 23 फ़ीसदी, मुसलमानों में 18 फीसदी, ईसाइयों में 5 फीसदी और बौद्धों में एक फीसदी परिवारों ने माना है कि वो छुआछूत में विश्वास रखते हैं. यानि साफ़ है जातिवाद का ज़हर सिर्फ किसी एक समाज में नहीं है. देश में रहने वाले कमोबेश सभी बड़े धर्मों और समुदायों में यह प्रथा देखने को मिलती है. यह अध्ययन करने वाली टीम का मानना है कि देश में छुआछूत मानने वाले परिवारों की दर इससे भी ज्यादा हो सकती है क्यूंकि कई लोगों ने सर्वे में डर की वजह से सही जवाब नहीं दिया होगा. यह अध्ययन संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर के सपनों वाले देश के लिए बड़ा झटका है जिन्होंने जातिमुक्त समाज की कल्पना की थी.
सर्वे के मुताबिक गांव में शहरों के मुकाबले ज्यादा छुआछूत का पालन होता है. शहरों में 20 फीसदी परिवारों ने माना कि वे छुआछूत में विश्वास रखते हैं जबकि गांव में 30 फीसदी ने इसके पालन की बात कही. यह सर्वे इस मायने में महत्वपूर्ण है कि पिछड़ा और दलित वर्ग के लोगों ने भी माना है कि वे छुआछूत की प्रथा का पालन कर रहे हैं. पिछड़ा वर्ग में यह समस्या वैश्य समुदाय से ज़्यादा मालूम पड़ती है. सर्वे में दावा किया गया है कि छुआछूत की प्रथा ब्राह्मण समुदाय में सबसे ज़्यादा 52 फीसदी है. वहीं क्षत्रिय और वैश्य समुदाय में 24 फीसदी, ओबीसी में 33 फीसदी, अनुसूचित जाति में 15 फीसदी, अनुसूचित जनजाति में 22 फीसदी और अन्य में 13 फीसदी लोग छुआछूत की प्रथा को मानते हैं और इसका पालन करते हैं. इन आंकड़ों से पता चलता है कि क्षत्रिय और वैश्य समाज से ज्यादा अन्य पिछड़ा वर्ग छुआछूत की प्रथा का पालन कर रहा है. वंचित और दमित माने जाने वाले दलित भी जाति के आधार पर भेदभाव कर रहे हैं. छुआछूत की समस्या किस धर्म में सबसे ज़्यादा है, यह सर्वे इस पहलू पर भी रोशनी डालता है. इसके मुताबिक सबसे ज़्यादा 35 फीसदी जैन समुदाय के लोगों ने छुआछूत की बात मानी. दूसरे नंबर पर हिंदू रहे जिनके 30 फीसदी परिवारों ने माना कि इस प्रथा का पालन करते हैं. वहीं सिखों में यह 23 फ़ीसदी, मुसलमानों में 18 फीसदी, ईसाइयों में 5 फीसदी और बौद्धों में एक फीसदी परिवारों ने माना है कि वो छुआछूत में विश्वास रखते हैं. यानि साफ़ है जातिवाद का ज़हर सिर्फ किसी एक समाज में नहीं है. देश में रहने वाले कमोबेश सभी बड़े धर्मों और समुदायों में यह प्रथा देखने को मिलती है. यह अध्ययन करने वाली टीम का मानना है कि देश में छुआछूत मानने वाले परिवारों की दर इससे भी ज्यादा हो सकती है क्यूंकि कई लोगों ने सर्वे में डर की वजह से सही जवाब नहीं दिया होगा. यह अध्ययन संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर के सपनों वाले देश के लिए बड़ा झटका है जिन्होंने जातिमुक्त समाज की कल्पना की थी.
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