कोरोना से जंग में प्लाज़्मा थेरेपी कितनी कारगर? जानिए पूरा इतिहास
दुनियभर में कोरोना वायरस से अबतक दो लाख 18 हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। वहीं 31 लाख 40 हज़ार से ज़्यादा लोग इस वायरस चपेट मे आ चुके हैं। इस वायरस के संक्रमण को ख़त्म करने के लिए दुनियभर में वैज्ञानिक वैक्सीन की खोज में लगे हुए हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि इसकी वैक्सीन बनाने में डेढ़ से दो साल तक का वक्त लग सकता है। हालांकि ऑक्सफोर्ड के जेनर इस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने वैक्सीन का बंदरों पर सफल परीक्षण कर लिया है और इंसानों पर परीक्षण के बाद सितंबर महीने तक मार्केट में आने की उम्मीद है।
अब जबकि ये बीमारी अबतक लाइलाज है तो लक्षण के हिसाब से मरीज़ों को दवाई दी जा रही है। इसी बीच प्लाज़्मा थेरेपी को दुनिया के कई देशों ने एक विकल्प माना है। उधर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कहा है कि कोरोना की कोई वैक्सीन नहीं है, ऐसे में तत्काल इलाज के सभी विकल्पों को अपनाना चाहिए।
हालांकि स्वास्थ्य मंत्रालय ने आईसीएमआर यानि इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के हवाले से कहा है कि प्लाज़्मा थेरेपी अब भी एक्सपेरिमेंट स्टेज पर है। कोविड-19 के इलाज़ के लिए इसके उपयोग का कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस थेरेपी को अवैध बताया है और कहा है कि ये मरीज़ों के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है। साथ ही कहा गया है कि इसपर क्लिनिकल रिसर्च जारी है। प्लाज़्मा मुख्य रूप से पोषक तत्वों, हार्मोन्स और प्रोटीन को शरीर के अनेक हिस्सों में पहुंचाता है। शरीर में मौजूद कोशिकाएं अपशिष्ट उत्पादों को प्लाज्मा में जमा करती हैं और शरीर के कचरों को बाहर निकालने में मदद करती है। साथ ही शरीर में सर्कुलेटरी सिस्टम को भी बेहतर बनाए रखने में मदद करता है। माना जाता है कि जो व्यक्ति कोरोना वायरस से संक्रमित है उनमें बनने वाले एंटीबॉडी इस वायरस से लड़ने में सक्षम नहीं होते। ऐसे में ठीक हो चुके मरीज़ के शरीर से खून लेकर उनमें से प्लाज़्मा को अलग किया जाता है और सक्रमित मरीज़ के शरीर में ट्रांसफ्यूज़न किया जाता है। इससे संक्रमित मरीज़ का शरीर कोरोना से लड़ने में सक्षम हो पाता है। हालांकि प्लाज़्मा थेरेपी कोई नया विकल्प नहीं है। इसका इस्तेमाल पहले भी संक्रामक बीमारियों से निपटने के लिए किया जाता रहा है। इसका इस्तेमाल सबसे पहले सन् 1800 ईस्वी में किया गया था। तब इसका प्रयोग बच्चों में सक्रमण से होने वाली बीमारी डिप्थीरिया के इलाज के लिए जर्मन फिजियोलॉजिस्ट एमिल वॉन बेह्रिंग ने किया था। इसके परिणाम सकारात्मक मिले और बीमारी से ग्रसित बच्चे ठीक हो गए। यही नहीं साल 1918 में स्पैनिश फ्लू से संक्रमित मरीज़ों पर भी प्लाज़्मा थेरेपी का इस्तेमाल किया गया। इसके अलावा एसएआरएस यानि सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम, एमईआरएस यानि मिडिल-ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम से संक्रमित मरीज़ों पर भी प्लाज़्मा थेरेपी का इस्तेमाल किया गया। अब भी कई देश कोरोना के मरीज़ों पर इस थेरेपी का प्रयोग कर रहे हैं जबकि इसकी संख्या कम है। अलजज़ीरा की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन ने दस कोरोना के मरीज़ों पर प्लाज़्मा थेरेपी का प्रयोग किया और इसकी तुलना उन मरीज़ों से की जिन्हें अन्य दवाईयां दी गई। इसकी तुलना में प्लाज़्मा थेरेपी का रिज़ल्ट बेहतर रहा। लेकिन ये एक छोटा परीक्षण था और बड़े स्तर पर इसके परीक्षण की आवश्यकता है। ये भी देखिए
हालांकि स्वास्थ्य मंत्रालय ने आईसीएमआर यानि इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के हवाले से कहा है कि प्लाज़्मा थेरेपी अब भी एक्सपेरिमेंट स्टेज पर है। कोविड-19 के इलाज़ के लिए इसके उपयोग का कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस थेरेपी को अवैध बताया है और कहा है कि ये मरीज़ों के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है। साथ ही कहा गया है कि इसपर क्लिनिकल रिसर्च जारी है। प्लाज़्मा मुख्य रूप से पोषक तत्वों, हार्मोन्स और प्रोटीन को शरीर के अनेक हिस्सों में पहुंचाता है। शरीर में मौजूद कोशिकाएं अपशिष्ट उत्पादों को प्लाज्मा में जमा करती हैं और शरीर के कचरों को बाहर निकालने में मदद करती है। साथ ही शरीर में सर्कुलेटरी सिस्टम को भी बेहतर बनाए रखने में मदद करता है। माना जाता है कि जो व्यक्ति कोरोना वायरस से संक्रमित है उनमें बनने वाले एंटीबॉडी इस वायरस से लड़ने में सक्षम नहीं होते। ऐसे में ठीक हो चुके मरीज़ के शरीर से खून लेकर उनमें से प्लाज़्मा को अलग किया जाता है और सक्रमित मरीज़ के शरीर में ट्रांसफ्यूज़न किया जाता है। इससे संक्रमित मरीज़ का शरीर कोरोना से लड़ने में सक्षम हो पाता है। हालांकि प्लाज़्मा थेरेपी कोई नया विकल्प नहीं है। इसका इस्तेमाल पहले भी संक्रामक बीमारियों से निपटने के लिए किया जाता रहा है। इसका इस्तेमाल सबसे पहले सन् 1800 ईस्वी में किया गया था। तब इसका प्रयोग बच्चों में सक्रमण से होने वाली बीमारी डिप्थीरिया के इलाज के लिए जर्मन फिजियोलॉजिस्ट एमिल वॉन बेह्रिंग ने किया था। इसके परिणाम सकारात्मक मिले और बीमारी से ग्रसित बच्चे ठीक हो गए। यही नहीं साल 1918 में स्पैनिश फ्लू से संक्रमित मरीज़ों पर भी प्लाज़्मा थेरेपी का इस्तेमाल किया गया। इसके अलावा एसएआरएस यानि सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम, एमईआरएस यानि मिडिल-ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम से संक्रमित मरीज़ों पर भी प्लाज़्मा थेरेपी का इस्तेमाल किया गया। अब भी कई देश कोरोना के मरीज़ों पर इस थेरेपी का प्रयोग कर रहे हैं जबकि इसकी संख्या कम है। अलजज़ीरा की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन ने दस कोरोना के मरीज़ों पर प्लाज़्मा थेरेपी का प्रयोग किया और इसकी तुलना उन मरीज़ों से की जिन्हें अन्य दवाईयां दी गई। इसकी तुलना में प्लाज़्मा थेरेपी का रिज़ल्ट बेहतर रहा। लेकिन ये एक छोटा परीक्षण था और बड़े स्तर पर इसके परीक्षण की आवश्यकता है। ये भी देखिए
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